Danveer Karna Story in
Hindi
संधि का प्रस्ताव असफल होने पर जब क्षीकृष्ण हस्तिनापुर लौट चले, तब, महारथी कर्ण उन्हें
सीमा तक विदा करने आए। मार्ग में कर्ण को समझाते हुए क्षीकृष्ण ने कहा - 'कर्ण, तुम सूतपुत्र नहीं
हो। तुम तो महाराजा पांडु और देवी कुंती के सबसे बड़े पुत्र हो। यदि दुर्योधन का
साथ छोड़कर पांडवों के पक्ष में आ जाओं तो तत्काल तम्हारा राज्याभिषेक कर दिया
जाएगा।'
यह सुनकर कर्ण ने उत्तर दिया- 'वासुदेव, मैं जानता हूँ कि मैं माता कुंती का पुत्र हूँ, किन्तु जब सभी लोग सूतपुत्र कहकर मेरा तिरस्कार कर रहे थे, तब केवल दुर्योधन ने मुझे सम्मान दिया। मेरे भरोसे ही उसने पांडवों को चुनौती दी है। क्या अब उसके उपकारों को भूलकर मैं उसके साथ विश्वघात करूं? ऐसा करके क्या मैं अधर्म का भागी नहीं बनूंगा? मैं यह जानता हूँ कि युद्ध में विजय पांडवों की होगी, लेकिन आप मुझे अपने कर्त्तव्य से क्यों विमुख करना चाहते हैं?' कर्त्तव्य के प्रति कर्ण की निष्ठा ने क्षीकृष्ण को निरूत्तर कर दिया।
इस प्रसंग में कर्त्तव्य के प्रति निष्ठा व्यक्ति के चरित्र को दृढ़ता प्रदान करती है और उस दृढ़ता को बड़े-से-बड़ा प्रलोभन भी शिथील नहीं कर पाता, यानि वह चरित्रवान व्यक्ति 'सेलेबिल' नहीं बन पाता। इसके अतिरिक्त इसमें धर्म के प्रति आस्था और निर्भीकता तथा आत्म सम्मान का परिचय मिलता है, जो चरित्र की विशेषताएं मानी जाती हैं।
“The sincere alone can recognize sincerity.”
-Thomas Carlyle (1795-1881)
-Thomas Carlyle (1795-1881)
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