बृहस्पति
छोटे देवतओं का गुरु था। उसने अपने बेटे कच को संसार में भेजा कि शंकराचार्य से
अमर-जीवन का रहस्य मालूम करे। कच शिक्षा प्राप्त करके स्वर्ग-लोक को जाने के लिए
तैयार था। उस समय वह अपने गुरु की पुत्री देवयानी से विदा लेने के लिए आया।
कच- ''देवयानी, मैं विदा लेने के लिए आया हूं। तुम्हारे
पिता के चरण-कमलों में मेरी शिक्षा पूरी हो चुकी है कृपा कर मुझे स्वर्ग-लोक जाने
की आज्ञा दो।''
देवयानी- ''तुम्हारी कामना पूर्ण हुई। जीवन के अमरत्व
का वह रहस्य तुम्हें ज्ञात हो चुका है, जिसकी देवताओं को सर्वदा इच्छा रही है, किन्तु तनिक विचार तो करो, क्या कोई और ऐसी वस्तु शेष नहीं जिसकी तुम
इच्छा कर सको?''
कच- ''कोई नहीं।''
देवयानी- ''बिल्कुल नहीं? तनिक अपने हृदय को टटोलो और देखो सम्भवत:
कोई छोटी-बड़ी इच्छा कहीं दबी पड़ी हो?''
कच- ''मेरे ऊषाकालीन जीवन का सूर्य अब ठीक
प्रकाश पर आ गया है। उसके प्रकाश से तारों का प्रकाश मध्दिम पड़ चुका है। मुझे अब
वह रहस्य ज्ञात हो गया है जो जीवन का अमरत्व है।''
देवयानी- ''तब तो सम्पूर्ण संसार में तुमसे अधिक कोई
भी व्यक्ति प्रसन्न न होगा। खेद है कि आज पहली बार मैं यह अनुभव कर रही हूं कि एक
अपरिचित देश में विश्राम करना तुम्हारे लिए कितना कष्टप्रद था। यद्यपि यह सत्य है
कि उत्तम-से-उत्तम वस्तु जो हमारे मस्तिष्क में थी, तुमको भेंट कर दी गई है।''
कच- 'इसका तनिक भी विचार मत करो और हर्ष-सहित
मुझे जाने की आज्ञा दो।''
देवयानी- ''सुखी रहो मेरे अच्छे सखा! तुम्हें प्रसन्न
होना चाहिए कि यह तुम्हारा स्वर्ग नहीं है। इस मृत्यु-लोक में जहां तृषा से कंठ
में कांटे पड़ जाते हैं, हंसना और मुस्कराना कोई ठिठोली नहीं है।
यह ही संसार है जहां अधूरी इच्छाएं चहुंओर घिरी हुई हैं, जहां खोई हुई प्रसन्नता की स्मृति में
बार-बार कलेजे में हूक उठती है। जहां ठंडी सांसों से पाला पड़ा है। तुम्हीं कहो, इस दुनिया में कोई क्या हंसेगा?''
कच- ''देवयानी बता, जल्दी बता, मुझसे क्या अपराध हुआ?''
देवयानी- ''तुम्हारे लिए इस वन को छोड़ना बहुत सरल है।
यह वही वन है जिसने इतने वर्षों तक तुम्हें अपनी छाया में रखा और तुम्हें लोरियां
दे-देकर थपकाता रहा। तुम्हें अनुभव नहीं होता कि आज वायु किस प्रकार क्रन्दन कर
रही है? देखो, वृक्षों की हिलती हुई छाया को देखो, उनके कोमल पल्लवों को निहारो। वे वायु में
घूम नहीं रहे बल्कि किसी खोई हुई आशा की भांति भटके-भटके फिर रहे हैं। एक तुम हो
कि तुम्हारे ओष्ठों पर हंसी खेल रही है। प्रसन्नता के साथ तुम विदा हो रहे हो।''
कच- ''मैं इस वन को किसी प्रकार मातृ-भूमि से कम
नहीं समझता; क्योंकि यहां ही मैं वास्तव में आरम्भ से जन्मा हूं। इसके प्रति मेरा
स्नेह कभी कम न होगा।''
देवयानी- ''वह देखो सामने बड़ का वृक्ष है। जिसने दिन
के घोर ताप में जबकि तुमने पशुओं को हरियाली में चरने के लिए छोड़ दिया था, तुम पर प्रेम से छाया की थी।''
कच- ''ऐ वन के स्वामी! मैं तुम्हें प्रणाम करता
हूं। जब और विद्यार्थी यहां शिक्षा-प्राप्ति हेतु आए और शहद की मक्खियों की
भनभनाहट और पत्तों की सरसराहट के साथ-साथ तेरी छाया में बैठकर अपना पाठ दोहराएं तो
मुझे भी स्मरण रखना।''
देवयानी- ''और तनिक वनमती का भी तो ध्यान करो जिसके
निर्मल और तीव्र प्रवाह का जल प्रेम-संगीत की एक लहर के समान है।''
कच- ''आह! उसको बिल्कुल नहीं भूल सकता। उसकी
स्मृति सदा बनी रहेगी। वनमती मेरी गरीबी की साथी है। वह एक तल्लीन युवती की भांति
होंठों पर मुस्कान लिये अपने सीधे-सीधे गीत गुनगुनाते हुए नि:स्वार्थ सेवा करती
है।''
देवयानी- ''किन्तु प्रिय सखा, तुम्हें स्मरण कराना चाहती हूं कि
तुम्हारा और भी कोई साथी था,जिसने बेहद प्रयत्न किया कि तुम इस
निर्धनता के दु:ख से भरे जीवन के प्रभाव से प्रभावित न हो। यह दूसरी बात है कि यह
प्रयत्न व्यर्थ हुआ।''
कच- ''उसकी स्मृति तो जीवन का एक अंग बन चुकी
है।''
देवयानी- ''मुझे वे दिन स्मरण हैं जब तुम पहली बार
यहां आये थे। उस समय तुम्हारी आयु किशोर अवस्था से कुछ ही अधिक थी। तुम्हारे नेत्र
मुस्करा रहे थे, तुम उस समय उधर वाटिका की बाढ़ के समीप खड़े थे।''
कच- ''हां! हां! उस समय तुम फूल चुन रही थीं।
तुम्हारे शरीर पर श्वेत वस्त्र थे। ऐसा दिखाई देता था जैसे ऊषा ने अपने प्रकाश में
स्नान किया है। तुम्हें सम्भवत: स्मरण होगा, मैंने कहा था यदि मैं तुम्हारी कुछ सहायता
कर सकूं तो मेरा सौभाग्य होगा।''
देवयानी- ''स्मरण क्यों नहीं है। मैंने आश्चर्य से
तुमसे पूछा था कि तुम कौन हो? और तुमने अत्यन्त नम्रता से उत्तर दिया था
कि मैं इन्द्र की सभा के प्रसिध्द गुरु 'बृहस्पति' का सुपुत्र हूं। फिर तुमने बताया कि तुम
मेरे पिता से वह रहस्य मालूम करना चाहते हो, जिससे मुर्दे जीवित हो सकते हैं।''
कच- ''मुझे सन्देह था कि सम्भव है, तुम्हारे पिता मुझे अपने शिष्य रूप में
स्वीकार न करें।''
देवयानी- ''किन्तु जब मैंने तुम्हारी स्वीकृति के लिए
समर्थन किया तो वह इस विनती को अस्वीकार न कर सके। उनको अपनी पुत्री से इतना अधिक
स्नेह है कि वह उसकी बात टाल नहीं सकते।''
कच- ''और जब मैं तीन बार विपक्षियों के हाथों
मारा गया तो तुम्हीं ने अपने पिता को बाध्य किया था कि मुझे दोबारा जीवित करें।
मैं इस उपकार को बिल्कुल नहीं विस्मृत कर सकता।''
देवयानी- ''उपकार? यदि तुम उसको विस्मृत कर दोगे तो मुझे
बिल्कुल दु:ख न होगा। क्या तुम्हारी स्मृति केवल लाभ पर ही दृष्टि रखती है? यदि यही बात है तो उसका विस्मृत हो जाना
ही अच्छा है। प्रतिदिन पाठ के पश्चात् संध्या के अंधेरे और शून्यता में यदि
असाधारण हर्ष और प्रसन्नता की लहरें तुम्हारे सिर पर बीती हों तो उनको स्मरण रखो, उपकार को स्मरण रखने से क्या लाभ? यदि कभी तुम्हारे पास से कोई गुजरा हो, जिसके गीत का चुभता हुआ टुकड़ा तुम्हारे
पाठ में उलझ गया हो या जिसके वायु में लहराते हुए आंचल ने तुम्हारे ध्यान को पाठ
से हटाकर अपनी ओर आकर्षित कर लिया हो, अपने अवकाश के समय में कभी उसको अवश्य
स्मरण कर लेना; परन्तु केवल यही, कुछ और नहीं! सौन्दर्य और प्रेम का याद न
आना ही अच्छा है।''
कच- ''बहुत-सी वस्तुएं हैं जो शब्दों द्वारा
प्रकट नहीं हो सकतीं।''
देवयानी- ''हां, हां, मैं जानती हूं। मेरे प्रेम से तुम्हारे
हृदय का एक-एक अणु छिद चुका है और यही कारण है कि मैं बिना संकोच के इस सत्य को
प्रकट कर रही हूं कि तुम्हारी सुरक्षा और कम बोलना मुझे पसन्द नहीं। तुम्हें मुझसे
अलग होना अच्छा नहीं यहीं विश्राम करो, कोई ख्याति ही हर्ष का साधन नहीं है। अब
तुम मुझको छोड़कर नहीं जा सकते, तुम्हारा रहस्य मुझ पर खुल चुका है।''
कच- ''नहीं देवयानी, नहीं, ऐसा न कहो।''
देवयानी- ''क्या कहा, नहीं? मुझसे क्यों झूठ बोलते हो? प्रेम की दृष्टि छिपी नहीं रहती। प्रतिदिन
तुम्हारे सिर के तनिक से हिलने से तुम्हारे हाथों के कम्पन से तुम्हारा हृदय, तुम्हारी इच्छा मुझ पर प्रकट करता है। जिस
प्रकार सागर अपनी तंरगों द्वारा काम करता है, उसी प्रकार तुम्हारे हृदय ने तुम्हारी
भाव-भंगिमा द्वारा मुझ तक संदेश पहुंचाया। सहसा मेरी आवाज सुनकर तुम तिलमिला उठते
थे। क्या तुम समझते हो कि मुझे तुम्हारी उस दशा का अनुभव नहीं हुआ? मैं तुमको भलीभांति जानती हूं और इसलिए अब
तुम सर्वदा मेरे हो। तुम्हारे देवताओं का राजा भी इस सम्बन्ध को नहीं तोड़ सकता!''
कच- ''किन्तु देवयानी, तुम्हीं हो, क्या इतने वर्ष अपने घर और घर वालों से
अलग रहकर मैंने इसीलिए परिश्रम किया था?''
देवयानी- ''क्यों नहीं, क्या तुम समझते हो कि संसार में शिक्षा का
मूल्य है और प्रेम का मूल्य ही नहीं? समय नष्ट मत करो, साहस से काम लो और यह प्रतिज्ञा करो।
शक्ति, शिक्षा और ख्याति की प्राप्ति के लिए
मनुष्य तपस्या और इन्द्रियों का दमन करता है। एक स्त्री के सामने इन सबका कोई
मूल्य नहीं।''
कच- ''तुम जानती हो कि मैंने सच्चे हृदय से
देवताओं से प्रतिज्ञा की थी कि मैं जीवन के अमरत्व का रहस्य प्राप्त करके आपकी
सेवा में आ उपस्थित होऊंगा?''
देवयानी- ''परंतु क्या तुम कह सकते हो कि तुम्हारे
नेत्रों ने पुस्तकों के अतिरिक्त और किसी वस्तु पर दृष्टि नहीं डाली? क्या तुम यह कह सकते हो कि मुझे पुष्प
भेंट करने के लिए तुमने कभी अपनी पुस्तक को नहीं छोड़ा? क्या तुम्हें कभी ऐसे अवसर की खोज नहीं
रही कि संध्याकाल मेरी पुष्प-वाटिका के पुष्पों पर जल छिड़क सको? संध्या समय जब नदी पर अन्धकार का वितान तन
जाता तो मानो प्रेम अपने दुखित मौन पर छा जाता। तुम घास पर मेरे बराबर बैठकर मुझे
अपने स्वर्गिक गीत गाकर क्यों सुनाते थे? क्या यह सब काम उन षडयंत्रों से भरी हुई
चालाकियों का एक भाग नहीं, जो तुम्हारे स्वर्ग में क्षम्य है? क्या इन कृत्रिम युक्तियों से तुमने मेरे
पिता को अपना न बनाना चाहा था और अब विदाई के समय धन्यवाद के कुछ मूल्यहीन सिक्के
उस सेविका की ओर फेंकते हो, जो तुम्हारे छल से छली जा चुकी है?''
कच- ''अभिमानी स्त्री! वास्तविकता को मालूम करने
से क्या लाभ? यह मेरा भ्रम था कि मैंने एक विशेष भावना के वश तेरी सेवा की और मुझे
उसका दण्ड मिल गया; किन्तु अभी वह समय नहीं आया कि मैं इस
प्रश्न का उत्तर दे सकूं कि मेरा प्रेम सत्य था या नहीं; क्योंकि मुझे अपने जीवन का उद्देश्य दिखाई
दे रहा है। अब चाहे तो तेरे हृदय से अग्नि की चिनगारियां निकल-निकलकर सम्पूर्ण
वायुमण्डल को आच्छादित कर लें, मैं भलीभांति जानता हूं कि स्वर्ग अब मेरे
लिए स्वर्ग नहीं रहा,देवताओं की सेवा में यह रहस्य तुरन्त ही पहुंचाना मेरा कर्त्तव्य है।
जिसको मैंने कठिन परिश्रम के पश्चात् प्राप्त किया है। इससे पहले मुझे व्यक्तिगत
प्रसन्नता की प्राप्ति का ध्यान तनिक भी नहीं था। क्षमा कर देवयानी, मुझे क्षमा कर? सच्चे हृदय से क्षमा का इच्छुक हूं। इस
बात को सत्य जाना कि तुझे आघात पहुंचाकर मैंने अपनी कठिनाइयों को दुगुना कर लिया
है।''
देवयानी- ''क्षमा? तुमने मेरे नारी-हृदय को पाषाण की भांति
कठोर कर दिया है, वह ज्वालामुखी की भांति क्रोध में भभक रहा
है। तुम अपने काम पर वापस जा सकते हो किन्तु मेरे लिए शेष क्या रहा,केवल स्मृति का एक कंटीला बिछौना और छिपी
हुई लज्जा, जो सर्वदा मेरे प्रेम का उपहास करेगी। तुम एक पथिक के रूप में यहां
आये धूप से बचने के लिए। मेरे वृक्षों की छाया में आश्रय लिया और अपना समय बिताया।
तुमने मेरे उद्यान के सम्पूर्ण पुष्प तोड़कर एक माला गूंथी और जब चलने का समय आया
तो तुमने धागा तोड़ दिया; पुष्पों को धूल में मिला दिया। मैं अपने
दुखित हृदय से शाप देती हूं कि जो शिक्षा तुमने प्राप्त की है वह सब तुमसे विस्मृत
हो जाये, दूसरे व्यक्ति तुम्हारे से यह शिक्षा
प्राप्त करेंगे, किन्तु जिस प्रकार तारे रात में अंधियारी से सम्बन्ध स्थापित नहीं कर
पाते,बल्कि अलग रहते हैं, उसी प्रकार तुम्हारी यह विद्या भी तुम्हारे
जीवन से अलग रहेगी। व्यक्तिगत रूप में तुम्हें इससे कोई लाभ न होगा और यह केवल
इसलिए कि तुमने प्रेम का अपमान किया, प्रेम का मूल्य नहीं समझा।''
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